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Wednesday, 20 May 2020

झारखंड राज्य के प्रमुख जनजातीय विद्रोह भाग 2

झारखंड राज्य के जनजातीय विद्रोह भाग 2





झारखंड के प्रमुख जनजातीय विद्रोह भाग 2


तिलका आंदोलन (1783-85):-
० तिलका आंदोलन का प्रारंभ 1783 ईस्वी में तिलका मांझी के नेतृत्व में हुआ।

० इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासी स्वायत्तता की रक्षा एवं इस क्षेत्र से अंग्रेजों को खदेड़ना था।

० इन्होंने आधुनिक रॉबिनहुड की भांति अंग्रेजी खजाना लूटकर गरीबों एवं जरूरतमंदों के बीच बांटना आरंभ किया।

० तिलका मांझी द्वारा गांव-गांव में *सखुआ पत्ता* घुमाकर विद्रोह का संदेश भेजा जाता था।

० तिलका मांझी ने *सुल्तानगंज* की पहाड़ियों से *छापामार युद्ध* का नेतृत्व किया था।

० तिलका मांझी के तीरों से मारा जाने वाला अंग्रेज सेना का नायक *अगस्टिन क्लीवलैंड* था।

० 1785 ईस्वी में तिलका मांझी को धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया और भागलपुर में *बरगद पेड़* पर लटका कर फांसी दे दी गई। वह स्थान आज भागलपुर में *बाबा तिलकामांझी चौक* के नाम से प्रसिद्ध है।

० भारतीय स्वाधीनता संग्राम के पहले विद्रोही शहीद तिलका मांझी थे।

० सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि तिलका विद्रोह में महिलाओं की भागीदारी थी, जबकि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं ने काफी बाद में हिस्सा लेना प्रारंभ किया।



चुआड़ विद्रोह (1769-1805):-
० चुआड़ विद्रोह अकाल, लगान में वृद्धि,जमीन की नीलामी एवं अन्य आर्थिक मुद्दों को लेकर किया गया।

० चुआड़ विद्रोह के प्रमुख नेताओं के नाम-- रघुनाथ महतो, श्याम गंजम, सुबल सिंह, जगन्नाथ पातर, मंगल सिंह, दुर्जन सिंह, लाल सिंह, मोहन सिंह आदि। रघुनाथ महतो ने 1769 ईस्वी में नारा दिया था अपना गांव अपना राज, दूर भगाओ विदेशी राज।

० 1798 में अप्रैल महीने में वीरभूम के जंगल महाल के क्षेत्रों घाटशिला, बिंदु मंडलकुंडा, पुरुग्राम आदि के चुआड़ों एवं मिदनापुर के चुआड़ों ने अंग्रेजो के द्वारा जमीन पर लगा बढ़ाए जाने के खिलाफ पंखे आर्थिक असंतोष के चलते विद्रोह कर दिया।

० जून में बांकुड़ा के चुआड़ एवं पाइक तथा उड़ीसा के पाइक भी इसमें शामिल हो गए।

० विद्रोह के विस्तृत स्वरूप के आगे अंग्रेजी दमन काम नहीं आया एवं अंग्रेजों को विवश होकर चुआड़ एवं पाइक सरदारों को उन से छीनी गई जमीन एवं सारी सुविधाएं वापस करनी पड़ी पड़ी।



चेरो आंदोलन (1800-1818):-
० पलामू की चेरो जनजाति ने ज्यादा कर वसूली एवं उपाश्रित पट्टों के पुनः अधिग्रहण के खिलाफ 1800 ईस्वी में *भूखन सिंह* के नेतृत्व में विद्रोह किया।

० इसे दबाने के लिए अंग्रेजों ने छल कपट एवं चालाकी का सहारा लिया।

० इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप 1809 ईस्वी में ब्रिटिश सरकार ने छोटानागपुर में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए जमींदारी पुलिस बल का गठन किया।

० 1814 में पलामू परगने की नीलामी की आड़ में अंग्रेजों ने इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया एवं शासन का दायित्व "भारदेव के राजा घनश्याम सिंह* को दे दिया।

० अंग्रेजों की इस साजिश के खिलाफ 1817 में उन्होंने जनजातियां सहयोग को सुनिश्चित कर विद्रोह किया परंतु इसे भी दबा दिया गया।

० इस विद्रोह का दमन *कर्नल जॉन्स* द्वारा किया गया।


हो विद्रोह (1820-21):-
० छोटा नागपुर के हो लोगों ने 1820 - 21 में जबरदस्त विद्रोह किया।

० यह विद्रोह सिंहभूम के क्षेत्र में हुआ।

० यह विद्रोह अभी अंग्रेजों एवं जमींदारों के शोषण के खिलाफ था।

० इस विद्रोह का मुख्य कारण राजा जगन्नाथ सिंह द्वारा शोषण तथा अंग्रेजों का पिछलग्गूपन होना था।

० 1820-21 में *मेजर रफ सेज* एवं 1837 में *कैप्टन विलकिंग्सन* के नेतृत्व में हो विद्रोह को दबा दिया गया।



कोल विद्रोह ( 1831-32):-
० छोटा नागपुर में अगर किसी ने अंग्रेज शासकों एवं जमींदारों को सर्वाधिक परेशान किया तो वे थे-- कोल विद्रोही।

० यह मुंडा जनजाति का विद्रोह था, जिसमें हो जाति ने भी खुलकर साथ दिया था।

० इस विद्रोह में छोटा नागपुर विशेषकर सिंहभूम, पलामू, मानभूम के कुछ भागों की जनजातियों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया।

० इस विद्रोह का प्रमुख कारण *भूमि संबंधी असंतोष* था।

० इस विद्रोह का एक प्रमुख नेता *बुधु भगत* था। इस युद्ध में वह अपने भाई पुत्र और 100 अनुयायियों सहित मारा गया।

० विद्रोहियों के दो अन्य नेता *सिंध राय एवं सुर्गा* अंत तक लड़ते रहे। उन्होंने 1832 में आत्मसमर्पण किया।

० विद्रोह दबा दिया गया पर गांव के मुखिया (मुंडा) एवं 7-12 गांवों को मिलाकर बनाए गए पीर के प्रधान (मानकियों) जमीन लौटा दी गई।

० इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप 1833 ईस्वी में एक नए प्रांत *दक्षिण पश्चिम सीमा एजेंसी* का गठन हुआ। बाद में *मानकी मुंडा पद्धति* को वित्तीय एवं न्यायिक के अधिकार भी दिए गए।




भूमिज विद्रोह (1832-33)
० भूमिज विद्रोह का आरंभ 18 से 32 ईसवी में *गंगा नारायण* के नेतृत्व में हुआ। इसका प्रभाव वीरभूम और सिंहभूम के क्षेत्रों में रहा।

० यह विद्रोह वीरभूम(बड़ाभूम) राजा, पुलिस अधिकारियों, मुंसिफ, नमक दारोगा तथा अन्य देशों के खिलाफ भूमिजों की शिकायत की देन था।

० विद्रोह का दूसरा कारण स्थानीय व्यवस्था पर कंपनी की शासन व्यवस्था का थोपा जाना था ‌

० साथ ही, इसके पीछे अंग्रेजों की दमनकारी लगान व्यवस्था से उत्पन्न असंतोष भी काम कर रहा था।

० भूमिज विद्रोह की विधिवत शुरुआत 26 अप्रैल 1832 ईस्वी को वीरभूम परगना के जमींदार के सौतेले भाई और दीवान *माधव सिंह* की हत्या के साथ हुई।

० यह हत्या गंगा नारायण सिंह के द्वारा की गई। गंगा नारायण वीरभूम के जमींदार का चचेरा भाई था। दीवान के रूप में माधव सिंह काफी बदनाम हो चुका था। उसने कई तरह के करों को लगाकर जनता को तबाह कर दिया था।

० माधव सिंह के खिलाफ गंगा नारायण ने भूमिजों को एक अभूतपूर्व नेतृत्व प्रदान किया।

० माधव सिंह का अंत करने के पश्चात गंगा नारायण की टक्कर कंपनी के फौज के साथ हुई।

० कंपनी की फौज का नेतृत्व ब्रेंडन एवं लेफ्टिनेंट टिमर के हाथों में था।

० कोल एवं हो जनजातियों ने इस विद्रोह में गंगा नारायण का खुलकर साथ दिया।

० 7 फरवरी 1833 ईस्वी को खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह के खिलाफ लड़ते हुए गंगा नारायण मारा गया।

० खरसावां के ठाकुर ने उसका सर काट कर अंग्रेज अधिकारी कैप्टन विलकिंसन के पास भेज दिया। गंगा नारायण के मारे जाने से कैप्टन विलकिंसन ने राहत की सांस ली।

० गंगा नारायण के मृत्यु के पश्चात यह विद्रोह शिथिल पड़ गया।

० यद्यपि इस विद्रोह में गंगा नारायण की अंततः पराजय हुई, किंतु इसने यह स्पष्ट कर दिया था कि जंगल महाल में प्रशासकीय परिवर्तन की आवश्यकता है।

० कोल विद्रोह की ही भांति भूमिज विद्रोह के बाद भी कई प्रशासनिक परिवर्तन लाने हेतु अंग्रेज विवश हुए।

० 1833 ईस्वी के रेगुलेशन XIII के तहत शासन प्रणाली में व्यापक परिवर्तन किया गया। राजस्व नीति में परिवर्तन हुआ एवं छोटानागपुर को *दक्षिण पश्चिम सीमांत एजेंसी* का एक भाग मान लिया गया।

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