झारखंड के प्रमुख जनजातियां विद्रोह भाग 1
झारखंड राज्य के प्रमुख जनजातीय विद्रोह |
झारखंड के प्रमुख जनजातीय विद्रोह भाग 1
ढाल विद्रोह (1767-77)
० झारखंड में अंग्रेजों का प्रवेश सर्वप्रथम सिंहभूम - मानभूम की ओर से हुआ।
० अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का प्रथम बिगुल भी इसी क्षेत्र में बजा।
० 1767 ईस्वी में अंग्रेजों के सिंहभूम में प्रवेश के तुरंत बाद धालभूम के अपदस्थ राजा जगन्नाथ ढाल के नेतृत्व में एक व्यापक विद्रोह हुआ जिसे ढाल विद्रोह के नाम से जाना जाता है।
० ढाल विद्रोह 10 वर्षों तक चलता रहा।
० अंग्रेजी कंपनी द्वारा इस विद्रोह के दमन हेतु *लेफ्टिनेंट रुक* एवं *चार्ल्स मैगन* को भेजा गया, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली।
० 1777 ईस्वी में अंग्रेजी कंपनी द्वारा जगन्नाथ ढाल को पुनः धालभूम का राजा स्वीकार करने के पश्चात यह विद्रोह शांत हुआ।
० राजा बनने के बदले में जगन्नाथ ढाल ने अंग्रेजी कंपनी को 3 वर्षों में क्रमशः ₹2000, ₹3000 तथा ₹4000 वार्षिक कर के रूप में देना स्वीकार किया। सन् 1800 ई० इस राशि को बढ़ाकर ₹4267 कर दिया गया।
पहाड़िया विद्रोह (1772 - 82)
० पहाड़िया जनजाति संथाल परगना प्रमंडल की प्राचीनतम जनजाति है। वास्तव में यही यहां के प्रथम आदिम निवासी हैं।
० इनकी तीन उपजातियां हैं-- (i) माल : यह मुख्यतः बांसलोई नदी के दक्षिण में बसे हैं।
(ii) कुमार भाग: यह बांसलोई नदी के उत्तर तट पर बसे हैं।
(iii) सौरिया : यह बांसलोई नदी के उत्तर राजमहल के पठारों पर बसे हैं।
० पहाड़िया जनजाति राजपूत मुस्लिम मुगल एवं ब्रिटिश काल में विदेशी ताकतों से संघर्षरत रही है।
० अंग्रेजो के खिलाफ उन्होंने कई विद्रोह किए, जिन्हें जनजातियों के संघर्ष के इतिहास में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रथम व्यापक विद्रोह माना गया है।
० 1766 ईस्वी में रमना आहड़ी के नेतृत्व में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह के बाद पहाड़िया चैन से नहीं बैठे।
० इस विद्रोह में सरदार रमना आहड़ी (घसनिया पहाड़, दुमका), करिया पुलहर (आमगाछी पहाड़, दुमका), चंगरू सांवरिया (तारागाछी पहाड़, राजमहल), नायब सुरजा आदि ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।
० लेकिन सबसे जबरदस्त विद्रोह 1772, 1778 एवं 1779 में हुए।
० 1772 के विद्रोह में सूर्य चंगरू सांवरिया, पाचगे डोंबा एवं करिया पुलहर शहीद हुए। सनकारा महाराजा सुमेर सिंह की हत्या कर दी गई।
० 1781 - 82 में पुनः विद्रोह हुआ जब महेशपुर राजा की रानी सर्वेश्वरी ने विद्रोह किया, जिसमें पहाड़िया सरदारों ने अंग्रेजो के खिलाफ रानी का खुलकर समर्थन दिया।
० सरदारी एवं जमींदारी के पतन के बावजूद पहाड़ियों का विरोध जारी रहा।
० 1790 से 1810 के बीच अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों में संस्थानों का बहु संख्या में प्रवेश कराकर पहाड़िया को अल्पसंख्यक बना दिया। फिर भी, विद्रोह जारी रहा।
० अंग्रेजों ने पहाड़िया संघर्ष को दबाने हेतु 1824 में इनकी भूमि को दामिनी को नाम देकर सरकारी संपत्ति घोषित कर दी।
० 19वीं सदी में संथाल विद्रोह के पूर्व धरनी पहाड़ के रहने वाला सरदार सुंदरा पहाड़िया ने उन्हें पुनः संगठित किया।
० 1855 - 56 के संथाल विद्रोह में सौरिया एवं कुमारभाग की तुलना में माल पहाड़िया ने ज्यादा अहम भूमिका निभाई थी।
रामगढ़ विद्रोह:-
० हजारीबाग क्षेत्र में कंपनी को सबसे अधिक विरोध का सामना रामगढ़ राज्य की ओर से करना पड़ा।० रामगढ़ का राजा मुकुंद सिंह शुरू से अंत तक अंग्रेजों का विरोध करता रहा।
० 25 अक्टूबर 1772 को रामगढ़ राज्य पर दो तरफ से हमला कर दिया गया।
० छोटानागपुर खास की ओर से कप्तान जैकब कैमक और ईवास तथा दूसरी तरफ से तेज सिंह ने मिलकर आक्रमण किया।
० 27 - 28 अक्टूबर को दोनों की सेना रामगढ़ पहुंची, कमजोर स्थिति होने के कारण रामगढ़ के राजा मुकुंद सिंह को भागना पड़ा।
० 1774 ईस्वी में तेज सिंह को रामगढ़ का राजा घोषित किया गया।
० मुकुंद सिंह के निष्कासन एवं तेज सिंह को राजा बनाए जाने के बाद भी वहां स्थिति सामान्य नहीं हुई। मुकुंद सिंह के अतिरिक्त उसके अनेक संबंधी भी अपनी खोई हुई शक्ति प्राप्त करने के लिए सक्रिय थे।
० सितंबर 1774 ईस्वी में तेज सिंह की मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र पारसनाथ सिंह गद्दी पर बैठा।
० मुकुंद सिंह अपने समर्थकों के साथ उस पर हमला करने की तैयारी में लगा हुआ था परंतु अंग्रेजों के कारण उसे सफलता नहीं मिल रही थी।
० 18 मार्च 1778 ईस्वी को अंग्रेजी फौज ने मुकुंद सिंह की रानी सहित उसके सभी प्रमुख संबंधियों को पलामू में पकड़ लिया।
० 1778 ईसवी के अंत तक पूरे रामगढ़ राज्य में अशांति की स्थिति बनी रही।
० रामगढ़ राजा पारसनाथ सिंह बड़ी हुई राजस्व की राशि ₹71000 वार्षिक देने में सक्षम ना था। इसके बावजूद रामगढ़ के कलेक्टर ने राजस्व की राशि 1778 ईस्वी में ₹81000 वार्षिक कर दी। यह स्थिति 1790 ईस्वी तक बरकरार रही।
० ठाकुर रघुनाथ सिंह (मुकुंद सिंह के समर्थक) के नेतृत्व में विद्रोही तत्व विद्रोह पर उतारू थे। रघुनाथ सिंह ने 4 पदों पर कब्जा कर लिया और वहां से पारसनाथ सिंह द्वारा नियुक्त जागीरदारों को खदेड़ दिया।
० विद्रोहियों के दमन के लिए कप्तान एकर्मन की बटालियन को बुलाना पड़ा। एकर्मन और लेफ्टिनेंट डेनियल के संयुक्त प्रयास से रघुनाथ सिंह को उसके प्रमुख अनुयायियों के साथ बंदी बना लिया गया। रघुनाथ सिंह को चटगांव भेज दिया गया।
० रामगढ़ की सुरक्षा का जिम्मा कैप्टन क्राफर्ड को सौंपा गया।
० अंग्रेजी कंपनी के निरंतर बढ़ते शिकंजे तथा करो में बेतहाशा वृद्धि से रामगढ़ के राजा पारसनाथ अब स्वयं अंग्रेजों के चंगुल से निकलने का उपाय सोचने लगा।
० 1781 ईस्वी में उसने बनारस के विद्रोही राजा चेत सिंह को सहायता प्रदान की।
० राजा अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सालाना कर का कुछ भाग बचाकर अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के अभियान में जुट गया।
० 1781 ईसवी के अंत तक संपूर्ण रामगढ़ में विद्रोह की आग लगने लगी। विद्रोह की तीव्रता को देखकर रामगढ़ की कलेक्टर ने स्थिति को काबू में लाने के लिए सरकार से सैन्य सहायता की मांग की।
० 1784 इसवी तक रामगढ़ के अनेक क्षेत्र उजार पर गए और रैयत पलायन कर गए। स्थिति की भयावहता को देखते हुए उप कलेक्टर जी० ग्लास ने सरकार से आग्रह किया कि रामगढ़ के राजा को राजस्व वसूली से मुक्त कर दिया जाए और राजस्व की वसूली के लिए सीधा बंदोबस्त किया जाए।
० रामगढ़ के राजा द्वारा इस नई व्यवस्था के पुरजोर विरोध के बावजूद डलास ने जागीरदारों के साथ खास बंदोबस्त कर राजा द्वारा उनकी जागीर को जप्त किए जाने पर रोक लगा दी अर्थात रामगढ़ का राजा अब सिर्फ मुखौटा बनकर रह गया।
० 1776 ईस्वी में फौजदारी तथा 1799 ईस्वी में दीवानी अदालत की स्थापना से राजा की स्थिति और भी कमजोर हो गई। स्थिति का लाभ उठाते हुए तमाड़ के जमींदारों ने रामगढ़ राज्य पर निरंतर हमले किए। राजा पूरी तरह अंग्रेजों पर आश्रित हो गया यह स्थिति 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक बनी रही।।
तमाड़ विद्रोह (1782 - 1820)
० तमार विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों को भूमि से वंचित किया जाना था। अंग्रेजी कंपनी, तहसीलदारों, जमींदारों एवं गैर आदिवासियों (दिकु) द्वारा उनका शोषण किया जाना था।० इस विद्रोह का प्रारंभ 1782 में छोटानागपुर की उरांव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ हुआ जो 1794 तक चला।
० ठाकुर भोला नाथ सिंह के नेतृत्व में यह विद्रोह प्रारंभ हुआ था इतिहास में यही तमाड़ विद्रोह के नाम से प्रसिद्ध है।
० 1809 में अंग्रेजों ने छोटानागपुर में शांति की स्थापना हेतु जमीदारी पुलिस बल की व्यवस्था की पर कोई भी फर्क नहीं आया। क्योंकि पुनः 1807, 1811, 1817,एवं 1820 में मुंडा एवं उड़ाओ जनजातियों ने जमींदारों एवं दिकूओं खिलाफ आवाज बुलंद की।
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