Tribes of Jharkhand
झारखंड की जनजातियां
Jharkhand ki janjatiyan
झारखंड की जनजातियां भाग 2
संथाल, उरांव और मुण्डा जनजाति के महत्वपूर्ण तथ्य।
1. संथाल
० झारखंड की प्रमुख जनजाति है। झारखंड की जनजातियों में सबसे अधिक संख्या संथालों की है।
० प्रजातीय दृष्टि से संथाल को *प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉयड* श्रेणी में रखा गया है।
० प्रजातीय और भाषिक दृष्टि से संथाल जनजाति *ऑस्ट्रिक* जनजाति के बहुत नजदीक हैं।
० इनकी बहुलता के कारण ही राज्य का *उत्तर पूर्वी* भाग *संथाल परगना* कहलाता है।
० राजमहल पहाड़ियों में इनके निवास स्थल को *दामिन-ए-कोह* कहा जाता है।
० झारखंड में संस्थानों का मुख्य निवास स्थल *संथाल परगना* ही है।
० यह जनजाति संथाल परगना के अतिरिक्त हजारीबाग, बोकारो, गिरिडीह, चतरा, रांची, सिंहभूम, धनबाद, लातेहार तथा पलामू में भी पाई जाती है।
० संभालो में कुल 12 गोत्र पाए जाते हैं। यह है -- हांसदा, मुर्मू, हेंब्रम, किस्कू, मरांडी, सोरेन, बास्की, टुडु, पौड़िया, बेसरा, चोंडे और बेदिया।
० संथाली के त्योहारों का प्रारंभ आषाढ़ महीने से होता है। इनके प्रमुख त्यौहार बाहा/बार, ऐरोक, सरहुल, करम, बंधना, हरियाड, जापाड, सोहराई, सकरात, माघसिम और हरिहारसिम है।
० संथाल ओं का उत्सव प्रिय त्योहार *सोहराई* फसल कटने के समय मनाया जाता है।
० संथालों के सबसे बड़े देवता को *सिंगबोंगा* या *ठाकुर* कहा जाता है।
० संथाल समाज में *ठाकुरजी* को *विश्व का विधाता* माना जाता है।
० संथालों का दूसरा प्रमुख देवता *मरांग बुरु* है।
० संथालों के मुख्य ग्रामदेवता *जाहेर एरा* है जिसका निवास स्थान साल वृक्षों से घिरा *जाहेर थान* होता है।
० नायके संथाल गांव का धार्मिक प्रधान होता है।
० संथाल गांवों की पंचायतें मांझीथिन में बैठती हैं।
० मांझी संथाल गांव का प्रधान होता है।
० बिटलाह संथाल समाज में सबसे कठोर सजा है। यह एक तरह का सामाजिक बहिष्कार है।
० संथाल जनजाति के लोग संथाली भाषा बोलते हैं। इनकी लिपि ओलचिकी है।
० सौंवे(100) संविधान संशोधन के द्वारा संथाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है।
० संथाल परिवार का कर्ताधर्ता व प्रधान पिता होता है।
० संथाल समाज 4 'हडो' (वर्ग/वर्ण) -- किस्कू हड (राजा), मुर्मू हड (पुजारी), सोरेन हड (सिपाही) और मरुडी हड (किसान) में विभक्त है।
० संथाल जनजाति एक अंतर्विवाही जनजाति है, जिनके बीच समगोत्रीय विवाह वर्जित है।
० पराया संथाल में एक विवाह की प्रथा है, किंतु विशेष परिस्थिति में दूसरी पत्नी रखने की छूट है।
० संथाल समाज में बाल विवाह की प्रथा नहीं है।
० इनमें विवाह समारोह को बापला कहा जाता है।
० संथालों में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित हैं:- किरिंग बापला, किरिंग जबाई, टुनकी दीपिल बापला, घर की जवांई, निर्बोलोक, इतुत, सांगा और सेवा विवाह।
० किरिंग बापला सर्वाधिक प्रचलित विवाह है। यह विवाह माता-पिता द्वारा अगुआ के माध्यम से तय किया जाता है।
० संथालों में वर पक्ष की ओर से कन्या पक्ष को दिया जाने वाला वधू मूल्य *पोन* कहलाता है।
० संथालों में शव को जलाने और दफनाने दोनों की प्रथाएं हैं।
० संथालों का मुख्य पेशा कृषि है।
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2. उरांव:-
० यह झारखंड की दूसरी प्रमुख जनजाति है।
० इनकी परंपरा से मिले संकेतों के अनुसार इनका मूल निवास स्थान *दक्कन* रहा है जिसे कुछ ने *कोंकण* बताया है।
० यह भाषा एवं प्रजाति दोनों दृष्टि से द्रविड़ जाति के हैं।
० दक्षिणी छोटानागपुर और पलामू प्रमंडल इन का गढ़ है। इन दोनों प्रमंडलों में ही लगभग 90% उरांव निवास करते हैं। जबकि शेष 10% उत्तरी छोटानागपुर, संथाल परगना एवं कोल्हान प्रमंडल में निवास करते हैं।
० यह जनजाति करीब 14 प्रमुख गोत्रों में विभाजित है। ये हैं-- लकड़ा, रुंडा, गारी, तिर्की, किस्पोट्टा, टोप्पो, एक्का, लिंडा, मिंज, कुजूर, बांडी, बेक, खलखो और केरकेट्टा।
० उरांव जनजाति के लोग कुडुख भाषा बोलते हैं जो द्रविड़ भाषा परिवार की ही है।
० यह लोग स्वयं को अपनी भाषा में कुडुख कहते हैं जिसका अर्थ मनुष्य होता है।
० सरना इनका पूजा स्थल होता है।
० इनके कबीले में ग्राम पंचायत का बहुत अधिक महत्व है, जिसके निर्णय को गांव का प्रत्येक व्यक्ति मानता है।
० इस जनजाति के पंचायत को पंचोरा कहा जाता है।
० *पाहन* इनका धार्मिक प्रधान या पुजारी होता है और *महतो* गांव का मुखिया जो गांव का सामाजिक - प्रशासनिक प्रबंधन करता है इसीलिए इनके गांव में यह कहावत प्रचलित है कि "पाहन गांव बनाता है, महतो गांव चलाता है।"
० इनका परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृ वंशीय होता है। पिता ही घर का मालिक होता है।
० यह लोग गोत्र को *किली* कहते हैं।
० धुमकुड़िया (युवा गृह) इनके जनजाति के युवकों एवं युवतियों की एक महत्वपूर्ण शिक्षण प्रशिक्षण संस्था है।
० युवक और युवतियों के लिए अलग-अलग धुमकुड़िया का प्रबंध होता है। युवकों के धुमकुड़िया को *जोंख - एरेपा* और युवतियों के सुतना-घर को *पेल - एरेपा* कहा जाता है।
० जोंख का अर्थ कुंवारा होता है। जोंख एरेपा को *धांगर - कुड़िया* भी कहा जाता है।
० जोंख एरेपा के मुखिया को *महतो या धांगर* कहा जाता है, जबकि पेल एरेपा की देखभाल करने वाली महिला *बड़की धांगरिन* कहलाती है।
०धुमकुड़िया में प्रवेश 3 वर्ष में एक बार दिया जाता है प्रवेश प्रायः सरहुल के समय होता है।
० धूम कुरिया में प्रवेश प्राय: 10-11 वर्ष की उम्र में हो जाता है और विवाह के पूर्व तक वह इसके सदस्य रहते हैं।
० उरांवएक विवाहित होते हैं, किंतु कुछ विशेष स्थिति में दूसरी पत्नी रखने की भी मान्यता है।
० इनमें समान गोत्र में विवाह वर्जित है इनमें विवाह मुख्यतः बहिर्गोत्र के आधार पर होता है।
० इनमें विवाह का सर्वाधिक प्रचलित रूप आयोजित विवाह है इसमें विवाह का प्रस्ताव लड़का पक्ष के सामने रखा जाता है लड़का पक्ष को वधू मूल्य देना पड़ता है।
० इनमें विधवा विवाह भी खूब प्रचलित है।
० इनका सबसे बड़ा देवता धर्मेश है, जिसकी तुलना यह सूर्य से करते हैं।
० इनके अन्य प्रमुख देवी देवता ठाकुर देव (ग्राम देवता), मरांग बुरु (पहाड़ देवता), डीहवार (सीमांत देवता), पूर्वजात्मा (कुलदेवता) आदि हैं।
० इनके पूर्वजों की आत्मा *सासन* में निवास करती है। इसका महत्व भी उनके बीच पूजा स्थल के समान ही है।
० करमा एवं सरहुल इस जनजाति के महत्वपूर्ण त्यौहार है।
० यह लोग प्रतिवर्ष वैशाख में *विसू सेंदरा* फागुन में *फागुन सेंदरा* और वर्षा ऋतु के आरंभ में *जेठ शिकार* करते हैं।
० इस जनजाति में त्योहारों के अवसर पर पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र को *केरया* तथा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र को *खनरिया* कहा जाता है।
० इस जनजाति के लोग नाच के मैदान को अखड़ा कहते हैं।
० इनका प्रमुख भोजन चावल, जंगली पक्षी, फल इत्यादि हैं।
० हड़िया इनका प्रिय पेय है।
० यह लोग बंदर का मांस नहीं खाते हैं। यह पूरे उरांव समाज के लिए निषेध है।
० इनमें गोदना की प्रथा प्रचलित है। गोदना को इनकी महिलाएं बहुत महत्व देती हैं।
० इनके वर्ष का आरंभ धान कटनी के बाद (नवंबर दिसंबर) से होता है।
० धान कटनी के समय से फागू पर्व (मार्च) तक का समय सर्वाधिक आनंद का समय माना जाता है।
० इनमें सबका प्रायः दाह संस्कार होता है।
० ईसाई उरांव का सब अनिवार्यता दफनाया जाता है और सभी क्रिया कर्म ईसाई धर्म के अनुसार ही होता है।
० इनका मुख्य पेशा कृषि है।
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3. मुंडा:-
० यह झारखंड की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है।
० प्रजातीय दृष्टि से मुंडा को प्रोटो-ऑस्ट्रोलाॅयड ग्रुप में रखा गया है।
० रांची जिला इस जनजाति का मुख्य निवास स्थान है।
० रांची के अतिरिक्त गुमला, सिमडेगा, पश्चिमी सिंहभूम एवं saraikela-kharsawan जिले में भी इनकी अच्छी खासी संख्या है।
० मुंडा जनजातियां *कोल* के नाम से भी जानी जाती है।
० तमाड़ क्षेत्र में रहने वाले मुंडा *तमाडिया मुंडा* या *पातर मुंडा* के नाम से जाने जाते हैं।
० यह स्वयं को *होड़ोको* कहते हैं।
० यह अपने गोत्र को किली कहते हैं।
० मुंडा लोग *मुंडारी भाषा* बोलते हैं। यह भाषा *ऑस्ट्रो-एशियाटिक* भाषा परिवार के अंतर्गत आती है।
० मुंडा लोग अपनी भाषा को *होड़ो जगर* कहते हैं।
० इनके युवागृह को गितिओड़ा कहा जाता है।
० गितिओड़ा एक प्रशिक्षण केंद्र गुरुकुल की तरह है जो मुंडा जनजाति के युवक-युवतियों को शिक्षित प्रशिक्षित करता है।
० मुंडा जाति में एकल एवं संयुक्त दोनों तरह के परिवार मिलते हैं अधिकांशतः एकल परिवार ही पाया जाता है।
० इनमें वंशकुल की परंपरा काफी महत्वपूर्ण है जिसे यह *खूंट* कहते हैं।
० मुंडा परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृ वंशीय होता है। पिता ही परिवार का मालिक होता है संतानों में भी पिता का ही गोत्र चलता है।
० रिज लेने मुंडा जनजाति के 340 गोत्रों का जिक्र किया है। *सोमा सिंह मुंडा* ने अपने संक्षिप्त मोनोग्राफ *मुंडा* में मुंडा जनजाति की 13 उपशाखाओं की चर्चा की है, लेकिन मुख्य रूप से दो शाखाओं को माना है---
१. महली मुंडा २. कंपाट मुंडा
० मुंडा लोगों में समान गोत्र में विवाह वर्जित है।
० इनका मुख्य देवता सिंगबोंगा है।
० सिंगबोंगा पर सफेद फूल, सफेद भोग पदार्थ एवं सफेद मुर्गा की बलि चढ़ाई जाती है।
० इनके अन्य प्रमुख देवी देवता हातुबोंगा (ग्राम देवता), ओड़ाबोंगा (कुलदेवता), देशाउली (गांव की सबसे बड़ी देवी), सुरू बोंगा (पहाड़ देवता), इकिरबोंगा (जल देवता) आदि हैं।।
० प्रत्येक मुंडा गांव में दो तरह के मुखिया होते हैं। एक धार्मिक मुखिया जिसे *पाहन* कहा जाता है, दूसरा प्रशासकीय मुखिया जिसे *मुंडा* कहा जाता है।
० पाहन का सहायक *पुजार या पनभरा* कहलाता है।
० इस जनजाति में *डेहरी* ग्रामीण पुजारी होते हैं।
० *देवड़ा* झाड़-फूंक का कार्य करते हैं।
० मुंडाओं की प्रसिद्ध लोक कथा सोसोबोंगा इनकी परंपराओं एवं विकास की अवस्थाओं पर प्रकाश डालती है।
० इस जनजाति के मुख्य पर्व सरहुल, करमा, सोहराय, बुरु पर्व, मागे पर्व, फागु पर्व, बतौली, दसाई, सोसोबोंगा, जतरा आदि हैं।
० मुंडा गांव में तीन प्रमुख स्थल होते हैं-- सरना, अखड़ा और ससान
० इस जनजाति में पूजा स्थल को सरना एवं पंचायत स्थल को अखड़ा कहा जाता है।
० अखड़ा गांव के बीच का खुला स्थल होता है जहां पंचायत की बैठक होती है और रात्रि में युवक-युवतियां एकत्र होकर नाचते गाते हैं।
० जिस स्थान पर इनके पूर्वजों की हड्डियां दबी होती हैं उसे ससान कहा जाता है।
० ससान (समाधि स्थल) में मृतकों की पुण्य स्मृति में पत्थर के शिलाखंड रखे जाते हैं जिसे ससानदिरि कहा जाता है इसे हड़गड़ी भी कहते हैं।
० मुंडा समाज में गांव के झगड़ों का निपटारा ग्राम पंचायत करता है। इसका प्रधान मुंडा होता है वह गांव का मालिक होता है जिसे *हातु मुंडा* भी कहते हैं।
० मुंडा समाज में शव को जलाने और गाड़ने की दोनों प्रथाएं पाई जाती हैं। हालांकि दफनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है।
० इस जनजाति में पुरुष जो कपड़ा पहनते हैं वह *बटोई या करेया* एवं महिलाएं जो कपड़ा पहनती हैं वह *पारेया* कहलाता है।
० मुंडा जाति का मुख्य पेशा कृषि है।
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झारखंड की जनजातियों के बारे में हम आगे पढ़ेंगे।
Great work
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